Wednesday, January 21, 2009

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय परस्ताँ ख़ूम-ए-मय मूंह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही

एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही

न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह्
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही

-DIVAN - E - GHALIB

1 comment:

HAREKRISHNAJI said...

वा क्या बात है

जीस्त से तंग हो तो जीतो क्यु हो "दाग"
जान प्यारी भी नही और जान से जाते भी नही

मी मधे माझा ब्लॉगवर गझल वर एक खॆळ सुरु केला होता, त्यात आपण भाग घ्यायला हवा होता.